पनपने लगी
अमरबेल सूखी सी
कुछ मुरझाई सी
एक उम्र जो लगी बड़ी
अलकसाई सी
मन सींचा, तन सींचा,
और सींचे मैंने
अपने ख्वाब भी,
बिना कुछ किये सींच गई
ये उम्र बेहिसाब सी।
बचपन की अल्हड़
उम्र बड़ी नादान सी
सात रंग के सपने देखे
डाले उसमे जान सी
मस्त जवानी के झोंकों ने
कुछ बेपरवाह सा
कर डाला, कुछ न सोचा
न ही समझा, बस
उम्र कट रही थी
बहुत आराम सी।
कितने बसंत,कितने
सावन इन आँखों को
दे डाले, झूमें झूलों मे
मतवाले होकर,
नैनों मे चमक,मन मे
पाने की ललक
अधरों पर लाली,
होठों पर मुस्कान सी।
जवानी खिसक कर
बुढापा दे गई तो क्या
हाथों की पकड़
कपकपाएँ तो क्या
दिल आज भी सीने मे
धड़कता है मेरा
"जनाब" ये उम्र नही है
बेजान सी।
इश्क़ मैं खुद से करूँ,
और सज़दा मेरे प्यार का
महोब्बत से सींच लूँ मैं
विश्वास इस संसार का
सदा के लिए नही रुकेंगे हम
यहाँ ये उम्र हैं मेहमान सी।
खुशियाँ लूटा दूँ,प्यार
बहा दूँ,और क्या
बाकि रहे मुझमे,
जी लूँ मैं ये जीवन
रंग दे मेरी धानी चुनरिया,
ये प्यारी लागे,
जैसे रंग,अबीर,गुलाल सी।
मन उड़ने दो मस्त परिंदे सा
जी भर कर अब जी लें हम
खुश रहो खुश रखो सबको
छोड़ दो उन सब बातों को
जो लगती हैं बेबुनियाद सी।
पनप जायेगी सूखी
वो" अमरबेल"
जो लगती पहले
कुछ ख़ास थी।
सरिता प्रजापति
दिल्ली