उजाड़ डारो ई मांस ने
बांझ धारती को कर डारो
जो मांस भूत बन गाओ।
सुख साता से पानु भरोतो,
खुद को पसारवे गोडे पसार लाए,
ये मांस उठजा अबे तोये हम मना राये,
नाई तो बैठ के माझी मारो।
अब तलाजा में थूतरो देख काय उचक राए,
ढूकरा होत चलो उजार के डांग,
अब छायरो किते पाउत।
भुंसारे की हवा मिलत्ती
अब होरी किते बारात
जा धारती कीका मरात
हे मांस ते काए उचकत
पानू बिना मछइया न जिवे
कुश्ती में चड़े को
सऊंन को बस्काओ
जाड़े की माउठ
कोनाऊ दीन को न बरसे।
प्रतिभा जैन
टीकमगढ़ मध्य प्रदेश