तुम ही तो थे न
एक-एक कर देते रहे मुझे
सभी रंग
इंद्रधनुष के ,
कि आज भी सतरंगी हैं
मेरे सभी सपने,
उतनी ही सजीव उनके पूर्णता की चाहत भी !!
जब मैं चुन रही थी
पीले सूरजमुखी ,
तब तुम ही तो झांक रहे थे न
बादलों के पीछे से
बनकर सूरज !!
उस दिन..
जब देखना चाहती थी मैं
समूचा आकाश ,
तुमने थमा दी थी
मेरे हाथों में
अनगिनत पतंगें ,
तभी तो , लिए खड़ी हूं मैं
अपने हिस्से का आसमान !!
तुम .. अनदेखे से
संग-संग रहे मेरे ,
बस , एक बार तुम्हें देखने की चाहत में
मैं लिखने लगती हूं
एक कविता ,
क्योंकि तुम शाश्र्वत नज़र आते हो
मेरी कविताओं में भी !!
नमिता गुप्ता "मनसी"
मेरठ , उत्तर प्रदेश