पर, लिखकर निहार लिया करती हूं तुमको
अपने ही शब्दों में ,
कभी कविताओं में ढालकर
कभी ग़ज़ल में निखार कर !!
कभी छिपा दिया करती हूं
शब्दों के बीच की रिक्तताओं के पीछे ,
ताकि बचाए रखूं
ज़माने की तीक्ष्ण नज़रों से !!
या फिर ठहरा दिया करती हूं
कोमा, ब्रेकेट, फुलस्टॉप..के
स्वरचित मायाजाल में !!
सुनों..
जब भी चुरा लिया करती हूं कुछ क्षण
वक़्त की अलमारी से.. चुपचाप ,
कि पढ़ सकूं तुमको
भले ही "थोड़ा सा" ,
पता नहीं क्यों..हर बार की तरह
भीग जाती हैं ये आंखें
न चाहते हुए भी !!
इस तरह..हर वक़्त
सालता रहता है वो "अपठित सा दर्द"..
न जानें क्यों..न जानें क्यों..
नमिता गुप्ता "मनसी"
मेरठ , उत्तर प्रदेश