मानो चलती हो विश्व सुंदरी।
उन्मुक्त गगन में उड़ती हो,
जानु कोई परी,अप्सरा स्त्री।।
सरस सलिल की प्यासी हो,
आओ तुम्हारी प्यास बुझा दूं।
मृगतृष्णा की अभिलाषी हो,
नवरस जीवन अमृत पिला दूं।।
कामिनी बन तुम आना गेह में,
आठों अंग में कर लेना श्रृंगार।
नववधू सी सजना शहद रात्रि में,
प्राणेश को करना अगण्य प्यार।।
फुलवारी सा प्रतीत होता कमरा,
रंग-बिरंगे फूलों से सेज सजी है।
घूंघट उठा देखा चांद सा मुखड़ा,
सुप्त हृदय में कामवासना जगी है।।
व्याकुल मन तृप्त हुआ आनंद से,
रात भर लिपटा रहा चंदन भुजंग।
भोर तक आलिंगन में मदमस्त था,
सुवास में खिल उठा मेरा अंग-अंग।।
कवि- अशोक कुमार यादव
पता- मुंगेली, छत्तीसगढ़ (भारत)