निज अस्तित्व से व्यथित थी ओस की इक बूँद,
नहीं जानती उसकी कांति से शोभित था द्रुम।
सोच रही थी मैं हूँ हीं क्या?रवि के ताप से मिट जाऊंगी मैं,
बना दो ईश मुझको नदी विस्तृत सागर में मिल जाऊँगी मैं।
बड़े प्यार से देख रही थी उसे एक नन्हीं सी बाला,
हीरक सा धवल,हरी घास पर जैसे सितारा।
मोती से उजले जलकण देख विस्मित थे लोचन,
गर्मी से झुलसी अवनि को मिली शीतल ओस पावन।
ओस की बूँद भी थी तनिक अब सस्मित,
लगा उसे हाँ, मेरा भी कुछ तो है अस्तित्व।
बड़े प्यार से उस बच्ची ने बूँद वो अपनी करतल पर सजायी,
निस्पंद ओस ने उस मुट्ठी में अपनी दुनियां पायी।
हम मानव भी किसी न किसी के खास ज़रूर होते हैं,
फिर भी न जाने क्यों एकाकीपन का रोना रोते हैं।
रीमा सिन्हा (लखनऊ)