'अमर शहीद पण्डित राजनारायण मिश्र'


आजादी की लड़ाई के लिये मुझे केवल दस देशभक्त चाहिये जो त्यागी हो और देश की खातिर अपनी जान की बाज़ी लगा दे। मुझे कई सौ आदमी नही चाहिये जो बड़बोले और अवसरवादी हो। अंग्रेजो के विरुद्ध इसी भावना से क्रांति का बिगुल श्री राजनारायण मिश्र जी ने फूंका।


महान क्रांतिकारी श्री राजनारायण मिश्र जी का जन्म उत्तर प्रदेश के जनपद लखीमपुर खीरी के भीषमपुर गाँव में संवत 1976 के माघ महीने की पंचमी को हुआ था। इनके पिता पंडित बलदेव प्रसाद और माता तुलसा देवी थी। 
राजनारायण मिश्र निर्भीक, चिंतनशील और बचपन से ही क्रांतिकारियों व महापुरुषों की कहानियाँ सुनने के शौकीन थे। इनका गाँव कठिना नदी के किनारे स्थित था और यहाँ के लोगों का जीवन भी नदी के नाम जैसा कठिन था।


उन्होनें बड़े होकर जाना कि यह दयनीय स्थिति सिर्फ उनके गाँव की ही नही अपितु पूरे देश की है। जिसका प्रमुख कारण अंग्रेजी साम्राज्य है। फ़िर क्या था वह भी अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ाई में कूद पड़े।


राजनारायण मिश्र ने खुद को चौदह नियमों व तीन प्रतिज्ञाओं से बांध रखा था। इन्होनें चालीस साथियों के साथ मिलकर अंग्रेज विरोधी वानर सेना बना ली, जो सशस्त्र अभियानों को अंजाम देती थी। 1942 के आन्दोलन में इन्होनें सक्रिय भाग लिया। उन्हे बन्दूकें एकत्रित कर आन्दोलन को अंजाम देने की जिम्मेदारी मिली। इन्होनें बन्दूकों के लिये लखीमपुर रियासत की तहसील के कोठार को कब्जे में ले लिया। बन्दूकें छीनने व रिकार्ड जलाने के ऑपरेशन में चली गोली से जिलेदार की मौत हो गयी।


ब्रिटिश शासन ने राजनारायण मिश्र को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने की घोषणा कर दी। इनके गाँव में आग लगवा दी और घर को खुदवाकर नमक छिड़कवा दिया। इनकी सारी पैतृक संपत्ति और खेत जब्त कर लिये। किन्तु ये भूमिगत होकर और भेष बदल कर देश की आजादी के लिये आन्दोलनरत रहे। पश्चिम बंगाल जाकर अच्छे बम बनाना सीखा।


15 अक्टूबर 1943 को मेरठ के गाँधी आश्रम से जुड़ गये। वहाँ के प्रबंधक पर विश्वास करके अपना असली नाम और काम बता दिया। उसके विश्वासघात करने पर अंग्रेजों द्वारा इन्हे पकड़ लिया गया। इन्हे जेल मे खूब यातनायें दी गयी और अन्त में फाँसी की सजा सुना दी गयी।


राजनारायण मिश्र अपना आदर्श सरदार भगत सिंह को मानते थे। अपनी फ़ाँसी की सजा को सुनकर बोले कि मेरा जीवन सफल हुआ। जानकारों का कहना है कि अगर ये अंग्रेजों से क्षमायाचना कर लेते तो इनकी फाँसी टल जाती लेकिन देश का सच्चा सपूत अंग्रेजी साम्राज्य के आगे न झुका।
जब जज ने अन्तिम इच्छा पूछी तो इन्होने कहा कि मेरी अन्तिम इच्छा यह है कि मै फाँसी का फंदा खुद पहनूँगा। 9 दिसम्बर 1944 को इन्होनें हँसते हुये फाँसी का फंदा चूम लिया। इनकी फाँसी ब्रिटिश उपनिवेश द्वारा भारत में किसी क्रांतिकारी को दी गयी आखिरी फाँसी थी।


महान क्रांतिकारी राजनारायण मिश्र ने कहा था कि हर देशवासी का फ़र्ज है कि वह अपने सामर्थ्य के अनुसार देश की आज़ादी की लड़ाई में भाग ले।


लेखक:- 
अभिषेक शुक्ला (स.अ.)
प्राथमिक विद्यालय लदपुरा 
विकास क्षेत्र- अमरिया
जिला- पीलीभीत