जातिवाद को समूल मिटाना होगा

क्या आपको यह जानकारी है कि आज भी गाँवों में अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों के शमशान अलग हैं।इसका मतलब यह साफ़ है कि सामान्य वर्ग के अलग हैं।सामान्य वर्ग के लिए बनाए गए शमशानों में अति वंचित तबके के लोग संस्कार नहीं कर सकते।ऐसा सुना है कि ये पुराने समय से चली आ रही परम्परा का हिस्सा है,जो अभी तक प्रचलित है।वैसे सदियों पुराने बहुत सारे कायदे-कानूनों को हम तिलांजलि दे चुके है लेकिन जाति अभी जाती नहीं है।शायद,आपका उत्तर होगा कि नहीं,आज के दौर में ऐसा नहीं है।पर आप सम्भवतः ठीक नहीं हैं।यदि आपको इसकी असलियत मालूम करनी है तो पूरे भारत को छोड़िए,कम से कम हरियाणा के गाँवों का दौरा कर लीजिए।आपकी आँखें फ़टी की फ़टी रह जाएंगी।बाकि प्रदेशों जैसे उतरप्रदेश,बिहार,राजस्थान का क्या हाल होगा?कल्पना करके ही रोंगटें खड़े हो जाते हैं।ऐसा ही एक घिनौना वाक्या आगरा के जनपद से आया हैं,जहाँ एक अति वंचित तबके को सवर्ण के लिए निर्धारित शमशान घाट पर संस्कार नहीं करने दिया गया।वैसे देखें तो यह खबर ही अपने आप में भयावह है,हमारे समाज की पोल खोलती है।हम सबको शर्मिंदा करने के लिए काफी है।मानवता के नाम पर ही कलंक है।उससे ऊपर यह कमाल है कि तमाम धर्म के ठेकेदार बिल्कुल मौन हैं,जैसे यह कोई घटना ही नहीं है।लानत है ऐसे धर्म के तमाम ठेकेदारों पर जो धर्म की आड़ लेकर शोषण को मौन रहकर बढ़ावा देने में साथ हैं।उनका न बोलना ही बहुत बड़ा अपराध माना जाना चाहिए,क्योंकि बहुत सारे मुद्दों पर वे तत्काल बोलते हैं।ऊपर तुर्रा यह कि अब तो समय बदल चुका है।अब तो जात-पात को कोई मानता ही नहीं।अब तो नई पीढ़ी जो कि पढ़ी लिखी है,उसके तो मन में भी जात-पात की भावना नहीं है।तर्क देखिए कि आजकल तो आपस में दोस्ती होती है।एक साथ बैठते हैं,रूम शेयर करते हैं,खाना शेयर करते हैं,विवाह आदि समारोह में न्यौता देते हैं,साथ में पार्टी करते हैं,एक दूसरे के घर आते-जाते हैं,फिर कहाँ रही जात-पात?हाँ,एकाध बुजुर्ग की तो नहीं कह सकते क्योंकि वो पुराने जमाने के हैं,उनकी बात छोड़ दो।ठीक कहा जी क्योंकि ग़ालिब ने कहा है कि--दिल बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है।लेकिन आपके यह जानकर होश क्यों नहीं उड़े कि आज के नए जमाने ने ही संस्कार करने से रोका है, वह भी इक्कीसवीं सदी में जबकि हम विश्व गुरु बनने का सपना देख रहे हैं,ऐसा विश्व गुरु नहीं होना चाहिए जो इंसान,इंसानों में भेद करे और चुप रहे।ये नए जमाने की बात है कि आज भी मंदिरों में वंचितों को प्रवेश नहीं करने दिया जाता।आज भी ओपन सीट से दलित चुनाव लड़ते हुए डरता है।आज भी जब पंचायत होती है तो उस तथाकथित पंचायत को योग्य केवल स्वर्ण जातियों में दिखाई देते हैं,बाकियों में नहीं।आज भी किसी खाप पंचायत का मुखिया दलित नहीं है।आज भी किसी बड़ी और महत्वपूर्ण पंचायत की अध्यक्षता किसी दलित से नहीं करवाई गई।आज भी नए जमने के लोगों में यह तर्क आम है कि सब कुछ तो ये आरक्षण वाले खा गए?अब इसको आप बहुत ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि ये तो पहले से भी गहरी हो रही हैं जात-पात की जड़ें।जबकि इस तर्क में सच्चाई छिपी है कि सब कुछ खा कौन रहा है?पर अपनी गलती ढंकने के लिए दोष हम किसे दे रहे हैं?आरक्षण के तहत सौ में बीस ही तो दलित लगे(जबकि वो भी खाली हैं,उमीदवार न मिलने की वजह से नहीं बल्कि अन्य कारणों से) बाकि अस्सी कौन लगे, तो खा कौन रहे हैं?क्या इसका अर्थ यह मान लिया जाए कि दलितों को ये सौ में से बीस भी नहीं मिलनी चाहिए थी,तब जाकर इस सड़ी-गली जातिवादी व्यवस्था को सब्र आता जबकि नियम अनुसार संख्या दलितों की देश में ज्यादा है,उन्हें सौ में अस्सी मिलनी चाहिए?इसके बाद आपका तरीका सही भी हो सकता है।ये नए ज़माने के लोगों में किसने भर दी,जिसे आप कहते हैं कि साथ उठता-बैठता,रूम शेयर करता है और फिर वो गाहे-बगाहे बोल देता है कि यार तुम्हें तो नौकरी मिल ही जाएगी क्योंकि तुम तो रिज़र्व कटैगरी में आते हो।कमाल है सौ में अस्सी "आपके" और रिज़र्व में "ये"आते हैं।क्या ये जातिवाद की परकाष्ठा नहीं है?क्या इस तरह की सोच और मानसिकता ये दर्शाती है कि अब जातिवाद नहीं रहा?बहुत सारे लोग तो यहाँ तक भी कह देते हैं कि जब तक आरक्षण रहेगा तब तक जाति रहेगी।ठीक कह रहे हैं आप लोग लेकिन क्या ये भी बोलने की हिम्मत है कि रोटी-बेटी का रिश्ता भी होगा?क्या ये कहने की भी हिम्मत है कि जाति का लेबल मन से,विचार से हटा दिया जाएगा?आज भी खेत-किसानी में इन लोगों का शोषण है।आज भी इनको हेय दृष्टि से देखा जाता है।सवाल आरक्षण का नहीं है,सवाल इंसानियत का है,मानवता का है।सवाल है कि जात की स्टेम्प क्यों बनी हुई है?अगर दलित जाति के सौ आदमी खड़े हों और वहाँ एक व्यक्ति स्वर्ण जाति का आ जाए।आप यकीन मानिए वो एक ही भारी पड़ता है लेकिन बुद्धि ओर तर्क के बल पर नहीं बल्कि जाति के नाम और दम्भ पर,और बात हम करते हैं एक सर्वश्रेष्ठ जीवन पद्दति के अनुयायी होने की।जिस पद्दति में गोबर की पूजा तो हम कर सकते हैं लेकिन इंसान त्याज्य है,वह भी जाति के नाम पर।बावजूद आरक्षण के आज भी असमानता है,बावजूद आरक्षण के आज भी भेदभाव है।सवाल असमानता खत्म करने का है।सवाल भेदभाव खत्म करने का है।सवाल जाति खत्म करने का है।सवाल जाति के नाम पर दम्भ और शोषण खत्म करने का है।सवाल सोच और मानसिकता को बदलने का है।सवाल समान अवसर देने का है।सवाल बड़ा है लेकिन कठिन बिल्कुल भी नहीं।अगर हम और हमारा समाज चाहे तो यह कार्य हो सकता है और हमेशा-हमेशा के लिए इस तरह की मानवता को शर्मिंदा करने वाली ख़बरों पर रोक लग सकती है।काम करने का  है,करना ही चाहिए और करना ही होगा यदि हम चाहते हैं कि मानवता बची रहे।

कृष्ण कुमार निर्माण

   करनाल,हरियाणा।

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